Kabirdas Jayanti 2023: Kabirdas ke dohe। संत कबीर दास के दोहे और उनके अर्थ..

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Dohe of kabir das in hindi– कबीर 15 वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। संत कबीर दास जी भक्ति कालीन युग में हिन्दी साहित्य के ज्ञानाश्रयी- निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। संत कबीर दास के दोहे गागर में सागर के समान हैं, जिनका अर्थ समझ कर यदि उनका अनुसरण किया जाये तो निश्चय ही आत्मा को शांति मिलेगी- आइये आज कबीर के दोहे और उनके अर्थ/ kabir ke dohe in hindi , kabir ke dohe sakhi meaning in hindi & kabir ke dohe with meaning in hindi language आपको बता रहें है जो आपके लिए बहुत उपयोगी साबित होंगे-

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Kabir ke dohe sakhi meaning in hindi & kabir ke dohe with meaning in hindi language

गुरू गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाँय।
बलिहारी गुरू आपने, गोविंद दियो मिलाय।1।

अर्थ –कबीर दास जी इस दोहे के द्वारा यह समझाने कि कोशिश कर रहे हैं कि गुरु का सही महत्व क्या है जीवन में। वह समझा रहे है कि ईश्वर और गुरु में आपको पहले स्थान पर किसे रखना चाहिए और चुनना चाहिए। इस बात को समझाते हुए कबीर जी कहते हैं गुरु ही वह है जिसने आपको ईश्वर के महत्व को समझाया है और ईश्वर से मिलाया है इसलिए गुरु का दर्ज़ा इस संसार में हमेशा ऊपर होता है।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।2।

अर्थ –कबीर जी कहते हैं उच्च ज्ञान पा लेने से कोई भी व्यक्ति विद्वान नहीं बन जाता, अक्षर और शब्दों का ज्ञान होने के पश्चात भी अगर उसके अर्थ के मोल को कोई ना समझ सके, ज्ञान की करुणा को ना समझ सके तो वह अज्ञानी है, परन्तु जिस किसी नें भी प्रेम के ढाई अक्षर को सही रूप से समझ लिया हो वही सच्चा और सही विद्वान है।

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।3।

अर्थ – जीवन में जो लोग हमेशा प्रयास करते हैं वो उन्हें जो चाहे वो पा लेते हैं जैसे कोई गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ पा ही लेता हैं। लेकिन कुछ लोग गहरे पानी में डूबने के डर से यानी असफल होने के डर से कुछ करते ही नहीं और किनारे पर ही बैठे रहते हैं।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।4।

अर्थ – जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।

कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।5।

अर्थ – जब तक यह देह है तब तक तू कुछ न कुछ देता रह। जब देह धूल में मिल जायगी, तब कौन कहेगा कि ‘दो’।

चाह मिटी, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह,
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह।6।

अर्थ – इस दोहे में कबीर जी कहते हैं इस जीवन में जिस किसी भी व्यक्ति के मन में लोभ नहीं, मोह माया नहीं, जिसको कुछ भी खोने का डर नहीं, जिसका मन जीवन के भोग विलास से बेपरवाह हो चूका है वही सही मायने में इस विश्व का राजा महाराजा है।

या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।6।

अर्थ – इस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह सम्बन्ध न जोड़ो। सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।7।

अर्थ –बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।8।

अर्थ – इस दोहे में Kabir Ji नें एक बहुत ही अच्छी बात लिखी है, वे कहते हैं जब में पुरे संसार में बुराई ढूँढने के लिए निकला मुझे कोई भी, किसी भी प्रकार का बुरा और बुराई नहीं मिला। परन्तु जब मैंने स्वयं को देखा को मुझसे बुरा कोई नहीं मिला। कहने का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति अन्य लोगों में गलतियाँ ढूँढ़ते हैं वही सबसे ज्यादा गलत और बुराई से भरे हुए होते हैं।

ऐसी बनी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।9।

अर्थ – मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे मीठे और नम्र वचन बोलो, जिससे दुसरे लोग सुखी हों और स्वयं भी सुखी हो।

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय।10।

अर्थ –कबीर दास जी कहते हैं सभी लोग दुःख में भगवान् को याद करते हैं, परन्तु सुख के समय कोई भी भगवन को याद नहीं करता। अगर सुख में प्रभु को याद किया जाए तो दुःख हो ही क्यों ?

धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।11।

अर्थ – धर्म (परोपकार, दान सेवा) करने से धन नहीं घटना, देखो नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उसका जल घटना नहीं। धर्म करके स्वयं देख लो।

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।12।

अर्थ – इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।13।

अर्थ – कई युगों तक या वर्षों तक हाथ में मोतियों की माला घुमाने और जपने से किसी भी व्यक्ति के मन में सकारात्मक विचार उत्पन्न नहीं होते, उसका मन शांत नहीं होता। ऐसे व्यक्तियों को कबीर दास जी कहते हैं कि माला जपना छोड़ो और अपने मन को अच्छे विचारों की ओर मोड़ो या फेरो।

कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।14।

अर्थ – गुरु कबीर साधुओं से कहते हैं कि वहाँ पर मत जाओ, जहाँ पर पूर्व के कुल-कुटुम्ब का सम्बन्ध हो। क्योंकि वे लोग आपकी साधुता के महत्व को नहीं जानेंगे, केवल शारीरिक पिता का नाम लेंगे ‘अमुक का लड़का आया है’।

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।15।

अर्थ – कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।16।

अर्थ – कबीर जी कहते हैं जो कोई भी व्यक्ति सही बोली बोलना जनता है जो अपने मुख से बोलने या वाणी का मूल्य समझता है, वह व्यक्ति अपने ह्र

जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय।17।

अर्थ – ‘आहारशुध्दी:’ जैसे खाय अन्न, वैसे बने मन्न लोक प्रचलित कहावत है और मनुष्य जैसी संगत करके जैसे उपदेश पायेगा, वैसे ही स्वयं बात करेगा। अतएव आहाविहार एवं संगत ठीक रखो।

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।18।

अर्थ –: सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का। इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति। कहैं कबीर तहँ जाइये, यह सन्तन की प्रीति।”

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।19।

अर्थ – यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह  दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत। गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच। हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच।”

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।20।

अर्थ – इस दोहे में कबीर जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही हैं उन लोगों के लिए जो दिन रात आपकी निंदा करते हैं और आपकी बुराइयाँ बताते हैं। कबीर जी कहते हैं ऐसे लोगों को हमें अपने करीब रखना चाहिए क्योंकि वे तो बिना पानी, बिना साबुन हमें हमारी नकारात्मक आदतों को बताते हैं जिससे हम उन नकारात्मक विचारों को सुधार कर सकारात्मक बना सकते हैं।

बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार।
औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।21।

अर्थ – हे दास ! तू सद्गुरु की सेवा कर, तब स्वरूप-साक्षात्कार हो सकता है। इस मनुष्य जन्म का उत्तम अवसर फिर से बारम्बार न मिलेगा।

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।22।

अर्थ – जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते  हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते। बार-बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच। बनजारे का बैल ज्यों, पैडा माही मीच।”

साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय,
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू ना भूखा जाय।23।

अर्थ – कबीर दास जी इस दोहे में भगवान् से पुरे दुनिया के लोगों की तरफ से प्रार्थना कर रहे हैं और कह रहे हैं – हे प्रभु ! मुझ पर बस इतनी कृपा रखना कि मेरा परिवार सुख शांति से रहे, ना में और मेरा परिवार भूखा रहें और ना ही कोई साधू मेरे घर से या सामने से भूखा लौटे।

“बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश।
खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश।24।

अर्थ – सौदागरों के बैल जैसे पीठ पर शक्कर लाद कर भी भूसा खाते हुए चारों और फेरि करते है। इस प्रकार इस प्रकार यथार्थ सद्गुरु के उपदेश बिना ज्ञान कहते हुए भी विषय – प्रपंचो में उलझे हुए मनुष्य नष्ट होते है।

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।25।

अर्थ – यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।

साधू ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय।
सार – सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।26।

अर्थ – जैसे अनाज साफ करने वाला सूप होता हैं वैसे इस दुनिया में सज्जनों की जरुरत हैं जो सार्थक चीजों को बचा ले और निरर्थक को चीजों को निकाल दे।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर,
पंथी को छाया नहीं फल लगे अति दूर।27।

अर्थ – कबीर दास जी इस दोहे में खजूर के पेड़ को मनुष्य का उद्धरण देते हुए कहा है, युहीं बड़ा कद या ऊँचा हो जाने से कोई मनुष्य बड़ा नहीं हो जाता अच्छा कर्म करने वाला व्यक्ति ही हमेशा बड़ा होता है क्योंकि बड़ा और ऊँचा तो खजूर का पेड़ भी होता है परन्तु उसकी छाया रस्ते में जा रहे लोगों को कुछ समय के लिए आराम नहीं दे सकती, और फल इतनी ऊंचाई में लगते हैं की उन्हें तोडना भी बहुत मुश्किल होता है।

माला फेरत जग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।28।

अर्थ – जब कोई व्यक्ति काफ़ी समय तक हाथ में मोती की माला लेकर घुमाता हैं लेकिन उसका भाव नहीं बदलता। संत कबीरदास ऐसे इन्सान को एक सलाह देते हैं की हाथ में मोतियों की माला को फेरना छोड़कर मन के मोती को बदलो।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।29।

अर्थ – न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है। दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त, अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।”

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।30।

अर्थ – कबीर दास जी का कहना है – जिस प्रकार ना तो अधिक वर्षा होना अच्छी बात हैं और ना ही अधिक धुप उसी प्रकार जीवन में ना तो ज्यादा बोलना अच्छा है, ना ही अधिक चुप रहना ठीक है।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।31।

अर्थ – इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही |
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही |32|

अर्थ – जब मैं अपने अहंकार में डूबा था – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया  – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।

कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव।
सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव।33।

अर्थ –कबीर कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उसअतिथि के समान है जो सूने, निर्जन घर में जैसा आता है, वैसा ही चला भी जाता है, कुछ प्राप्त नहीं कर पाता.

कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई ।
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ।34।

अर्थ – कबीर कहते हैं – प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पडा  – जिससे अंतरात्मा  तक भीग गई, आस पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया – खुश हाल हो गया – यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है ! हम इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते !

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