Tulsidas ke dohe in hindi with meaning/ तुलसीदास जी के दोहे अर्थ सहित

0
2314
dohe-of-tulsidas-in-hindi

गोस्वामी तुलसीदास जी भक्तिकाल के कवियों में से एक है।  तुलसीदास जी के दोहे ज्ञान-सागर के समान हैं| आइये हम इन दोहों को अर्थ सहित पढ़ें और इनसे मिलने वाली सीख को अपने जीवन में उतारें.

Tulsidas Dohe in Hindi श्री रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास के दोहे

चित्रकुट के घाट पर भई संतन की भीर।
तुलसीदास चंदन घिसे तिलक करे रघुबीर।।

तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।।

गोधन गजधन बाजिधन और रतन धन खान।
जब आवत सन्‍तोष धन, सब धन धूरि समान।।

एक ब्‍याधि बस नर मरहिं ए साधि बहु ब्‍याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि।।

तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहु ओर।
बसीकरण एक मंत्र है परिहरू बचन कठोर।।

बारि मथें घृत बरू सिकता ते बरू तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।।

नामु राम को कलपतरू क‍लि कल्‍यान निवासु।
जो सिमरत भयो भाँग ते तुलसी तुलसीदास।।

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्‍हहि बिलोकति हानि।।

सहज सुहृद गुर स्‍वामि सिख जो न करइ सिर मानि।
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि।।

नेम धर्म आचार तप ग्‍यान जग्‍य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्‍ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।।

ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्‍यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं।।

बिरति चर्म असि ग्‍यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि।।

ब्रह्मज्ञान बिनु नारि नर कहहीं न दूसरी बात।
कौड़ी लागी लोभ बस करहिं बिप्र गुर बात।।

जाकी रही भावना जैसी।
हरि मूरत देखी तिन तैसी।।

सचिव बैद गुरू तीनि जौ प्रिय बो‍लहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर कोइ होइ बेगिहीं नास।।

सुरनर मुनि कोऊ नहीं, जेहि न मोह माया प्रबल।
अस विचारी मन माहीं, भजिय महा मायापतिहीं।।

देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया विवश बिचारे।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु कहा अपनपो हारे।।

फोरहीं सिल लोढा, सदन लागें अदुक पहार।
कायर, क्रूर , कपूत, कलि घर घर सहस अहार।।

सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा।
जिम हरि शरण न एक हू बाधा।

तुलसी हरि अपमान तें होई अकाज समाज।
राज करत रज मिली गए सकल सकुल कुरूराज।।

तुलसी ममता राम सों समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख दास भए भव पार।।

नीच निचाई नही तजई, सज्जनहू के संग।
तुलसी चंदन बिटप बसि, बिनु बिष भय न भुजंग।।

राम दूरि माया बढ़ती, घटती जानि मन माह।
भूरी होती रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छांह।।

नाम राम को अंक है, सब साधन है सून।
अंक गए कछु हाथ नही, अंक रहे दास गून।।

तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन।
अब तो दादुर बोलिहं हमें पूछिह कौन।।

होई भले के अनभलो, होई दानी के सूम।
होई कपूत सपूत के ज्‍यों पावक में धूम।।

तुलसी अपने राम को, भजन करौ निरसंक।
आदि अन्‍त निरबाहिवो जैसे नौ को अंक।।

तुलसी इस संसार में सबसे मिलियो धाई।
न जाने केहि रूप में नारायण मिल जाई।।

तुलसी साथी विपत्ति के विद्या, विनय, विवेक।
साहस सुकृति सुसत्‍य व्रत राम भरोसे एक।।

दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया ना छोडिये जब तक घट में प्राण।।

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए।
अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए।।

तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग।
सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग।।

राम राज राजत सकल धरम निरत नर नारि।
राग न रोष न दोष दु:ख सुलभ पदारथ चारी।।

हरे चरहिं, तापाहं बरे, फरें पसारही हाथ।
तुलसी स्‍वारथ मीत सब परमारथ रघुनाथ।।

बिना तेज के पुरूष अवशी अवज्ञा होय।
आगि बुझे ज्‍यों रख की आप छुवे सब कोय।।

जड़ चेतन गुन दोषमय विश्‍व कीन्‍ह करतार।
संत हंस गुन गहहीं पथ परिहरी बारी निकारी।।

प्रभु तरू पर, कपि डार पर ते, आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से, साहिब सील निदान।।

मनि मानेक महेंगे किए सहेंगे तृण, जल, नाज।
तुलसी एते जानिए राम गरीब नेवाज।।

मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान को एक।
पालै पोसै सकल अंग, तुलसी सहित बिबेक ।।

काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान।
तौ लौं पण्डित मूरखौ तुलसी एक समान।।

आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह।।

मो सम दीन न दीन हित तुम्‍ह समान रघुबीर।
अस बिचारी रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।

सो कुल धन्‍य उमा सुनु जगत पूज्‍य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहि नर उपज बिनीत।।

मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारी तजि संसय रामहि भजहि प्रबीन।।

तुलसी किएं कुसंग थिति, होहि दाहिने बाम।
कहि सुनि सुकुचिअ सूम खल, रत हरि संकर नाम।।

बसि कुसंग चाह सुजनता, ता‍की आस निरास।
तीरथहू को नाम भो, गया मगह के पास।।

सो तनु धरि हरि भजहि न जे नर।
होहि बिषय रत मंद मंद तर।।

काँच किरिच बदलें ते लेहीं।
कर ते डारि परस मनि देहीं।।

तुलसी जे की‍रति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
तिनके मुंह मसि लागहै, मिटिहि न मरहि धोइ।।

तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान।
तुलसी जिअत बिडम्‍बना, परिनामहु गत जान।।

बचन बेष क्‍या जानिए, मनमलील नर नारि।
सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारी।।

राम नाम मनिदीप धरू जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजियार।।

उम्मीद है कि आपको गोस्वामी तुलसीदास के प्रसिद्ध दोहे पसंद आये होंगे। आप इन दोहों को अपने मित्रों के साथ सोशल मीडिया पर शेयर कर सकते हैं।

Disclaimer: Please be aware that the content provided here is for general informational purposes. All information on the Site is provided in good faith, however we make no representation or warranty of any kind, express or implied, regarding the accuracy, adequacy, validity, reliability, availability or completeness of any information on the Site.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here