मिर्ज़ा ग़ालिब की मशहूर शायरियां, शेर व गज़ल….

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Mirza Ghalib Shayari in Hindi – मशहूर लेखक मिर्ज़ा ग़ालिब के गज़ल, शेरो-शायरियां और कविताएं बहुत ही प्रसिद्ध हैं. जब भी कोई शायरी के ऊपर बात करता है तो सबसे पहले मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम जहन में आता हैं. देखा जाये तो मिर्जा ग़ालिब का पूरा जीवन शायरियों में रमा हुआ हैं।

मिर्ज़ा ग़ालिब मुगलकाल के आखिरी महान कवि और शायर थे। मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में बहुत मशहूर हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब मुख्यतः ऊर्दू में लिखते थे लेकिन वह उर्दू के साथ फारसी में भी लिखते थे।

ग़ालिब की शायरी व कविताएं दिल को छू जाती हैं, इनकी कविताओं पर कई नाटक भी बन चुके हैं। आज हम मिर्ज़ा ग़ालिब के कुछ प्रसिद्ध शेरों को लेकर आये हैं उम्मीद है आपको पसंद आयेंगे।

Best Mirza Ghalib Shayari in Hindi | मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना।

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नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिस के बाज़ू पर परेशाँ हो गईं

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रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है

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मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

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तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए’तिबार होता

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मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ

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क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन

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मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या-रब कई दिए होते

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ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता

***

मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती

मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी

क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ

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मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में

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रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’
कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था

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न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बे-ख़बर सोता
रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूँ रहज़न को

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रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए
धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए

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न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता

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अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले

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मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती

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ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे

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पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या

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रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए
धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए

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हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

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रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो

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हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल को ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है

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छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
हर इक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं

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