आदि शंकराचार्य जयंती 2021ः जिन्होंने हिन्दू धर्म की दो एक नई पहचान

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Adi Shankaracahrya Biography Jayanti in Hindi

यहां हम जानेंगे आदि शंकराचार्य जी की जयंती, उनका जन्म स्थान कहां है, मृत्यु कैसे हुई, माता पिता का नाम क्या था, श्लोक, अनमोल वचन,जीवनी आदि के बारे में ( Who Is Shankaracharya, How Adi Shankaracharya Died, How Shankaracharya Defeated Buddhism Shankaracharya Jayanti, Adi Shankaracharya Quotes)

वैसाख मास का हिन्दू धर्म में बहुत ही महत्व होता हैं जिसमें कई महान व्यक्तियों ने जन्म लिया ईसी कड़ी में हिंदू धर्म की ध्वजा को देश के चारों कोनों तक पहचाने वाले, अद्वैत वेदांत के मत को शास्त्रार्थ द्वारा देश के प्रत्येक कोने में सिद्ध करने वाले, भगवान शिव के अवतार माने जाने वाले आदि शंकराचार्य ने जन्म लिया था। शंकराचार्य एक महान दिन्दू दार्शनिक एवं धर्मगुरू थे। आइये जानते हैं शंकराचार्य के जीवन के बारे में विस्तार से-

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आदि शंकराचार्य जयंती कब है? –Shankaracahrya Jayanti 2021 Dates

हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी आदि गुरू शंकराचार्य की जयंती 17 मई 2021 को मनायी जा रही हैं. हिंन्दू मान्यताओं के मुताबिक इन्हे भगवान शंकर का अवतार भी माना जाता है। आदि शंकराचार्य जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन सनातन धर्म के जीर्णोंद्धार करने में लगा दिया उनके अधक प्रयासों ने हिंदू धर्म को नई चेतना प्रदान की।

आदि शंकराचार्य का जीवन परिचय – (Adi Shankaracharya Biography in hindi)

नामआदि शंकराचार्य
जन्म820 ई, केलर के कलादी ग्राम में
मृत्यु820 ई.
पिताश्री शिवागुरू
माताश्रीमती आर्याम्बा
धर्महिन्दू
जातिब्राह्मण
गुरूगोविंदाभागवात्पद
प्रमुख उपन्यासअद्वैत वेदांत

आदि शंकराचार्य का संक्षिप्त जीवन परिचय-Brief life introduction of Adi Shankaracharya

आदि शंकराचार्य जी का जन्म 788 ई0 पू0 माना जाता है. केलर का कालड़ी जो उस वक्त मालाबार प्रांत में होता था नामक स्थान पर एक नंबूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आदि शंकराचार्य के जन्म को लेकर एक कथा प्रचलित हैं- वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में शिवगुरू नाम के एक ब्राह्मण निवास करते थे, विवाहोपरांत उनके कई साल तक किसी भी संतान की प्राप्ति नहीं हुई. इसके बाद शिवगुरू ने पत्नी विशिष्टादेवी के साथ संतान प्राप्ति हेतु भगवान शंकर की आराधना की. इनके कठिन तप से प्रसन्न होकर महादेव ने स्वप्न में दर्शन दिये और वरदान मांगने के लिए कहा.

तव शिवगुरू नें भगवान शिव से एक ऐसी संतान की प्राप्ति की कामना की जो दीर्घायु भी हो और जिसकी ख्याति विश्वभर में बने. तब शिवजी नें कहा कि की या तो तुम्हारी संतान दीर्घायु हो सकती हैं या फिर सर्वज्ञ , जो दीर्घायु होगा वह सर्वज्ञ नहीं होगा और जो सर्वज्ञ होगा वह दीर्घायु नहीं होगा। तब शिवगुरू नें दीर्घायु की बजाय सर्वज्ञ की की कामना की. मान्यता हैं कि शिवजी नें इसके बाद स्वंय शिवगुरू की संतान के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया.

इसके बाद समय आने पर शिवगुरु और विशिष्टादेवी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। भगवान शंकर की तपस्या के प्रताप इस बालक का नाम भी माता-पिता ने शंकर रखा। कहते हैं पूत के पांव पलने में ही नज़र आने लगते हैं फिर वे तो स्वयं भगवान शंकर का वरदान थे अत: शैशव काल में ही यह संकेत तो माता-पिता को दिखाई देने लगे थे कि यह बालक तेजस्वी है, सामान्य बालकों की तरह नहीं है। हालांकि शैशवकाल में ही पिता शिवगुरु का साया सर से उठ गया।

 बालक शंकर ने भी माता की आज्ञा से वैराग्य का रास्ता अपनाया और सत्य की खोज में चल पड़े। मान्यता है कि मात्र सात वर्ष की आयु में उन्हें वेदों का संपूर्ण ज्ञान हो गया था। बारह वर्ष की आयु तक आते-आते वे शास्त्रों के ज्ञाता हो चुके थे। सोलह वर्ष की अवस्था में तो आप ब्रह्मसूत्र भाष्य सहित सौ से भी अधिक ग्रंथों की रचना कर चुके थे। इस आप शिष्यों को भी शिक्षित करने लगे थे। इसी कारण आपको आदि गुरु शंकाराचार्य के रूप में भी प्रसिद्धि मिली।

शंकराचार्य की मृत्यु- जैसा की भगवान शिवजी का वरदान था कि वह सर्वज्ञ तो होंगे लेकिन दीर्घायु नहीं होगें, उनके वर के मुताविक ही आदि शंकराचार्य की ख्याति पूरे भारत में हुआ लेकिन आदि शंकराचार्य 820 ई0 में पंचतत्व में विलीन हो गय़े. यानि वह केवल 32 वर्ष ही ही जीवित रहे.

शंकराचार्य पीठों की स्थापना (SHANKARACHARAY PEETH)

आदि शंकराचार्य द्वारा देश के चारों कौनों में अद्वैत वेदांत मत का प्रचार करने के साथ ही आपने पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं में मठों की स्थापना की इन्हें पीठ भी कहा जाता है।

वेदांत मठ  दक्षिण भारत में आपने वेदांत मठ की स्थापना श्रंगेरी (रामेश्वरम) में की। यह आप द्वारा स्थापित प्रथम मठ था इसे ज्ञानमठ भी कहा जाता है।

गोवर्धन मठ  इसे आपने पूर्वी भारत (जगन्नाथपुरी) में स्थापित किया। यह आदि शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित दूसरा मठ था।

शारदा मठ  पश्चिम भारत (द्वारकापुरी) में आपने तीसरे मठ की स्थापना की इसे कलिका मठ भी कहा जाता है।

बद्रीकाश्रम  इसे ज्योतिपीठ मठ कहा जाता है। यह आप द्वारा उत्तर भारत में स्थापित किया गया।

इस प्रकार चारों दिशाओं में मठों की स्थापना कर आपने धर्म का प्रचार पूरे देश में किया। आप जहां भी जाते वहां शास्त्रार्थ कर लोगों को उचित दृष्टांतों के माध्यम से तर्कपूर्ण विचार प्रकट कर अपने विचारों को सिद्ध करते। आपने तत्कालीन विद्वान मिथिला के मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया लेकिन कहा जाता है कि मण्डन मिश्र की पत्नी भारती ने आपको शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया। आपने पुन: रतिज्ञान प्राप्त किया और तत्पश्चात उन्हें भी शास्त्रार्थ में पराजित किया।

आदि शंकराचार्य जयंती महत्व | Significance of Adi Shankaracharya Jayanti

आदि शंकराचार्य जयन्ती के दिन शंकराचार्य मठों में पूजन हवन किया जाता है और पूरे देश में सनातन धर्म के महत्व पर विशेष कार्यक्रम किए जाते हैं. मान्यता है कि आदि शंकराचार्य जंयती के अवसर पर अद्वैत सिद्धांत का किया जाता है.

इस अवसर पर देश भर में शोभायात्राएं निकली जाती हैं तथा जयन्ती महोत्सव होता है जिसमें बडी संख्या में श्रद्वालु भाग लेते हैं तथा यात्रा करते समय रास्ते भर गुरु वन्दना और भजन-कीर्तनों का दौर रहता है. इस अवसर पर अनेक समारोह आयोजित किए जाते हैं जिसमें वैदिक विद्वानों द्वारा वेदों का सस्वर गान प्रस्तुत किया जाता है और समारोह में शंकराचार्य विरचित गुरु अष्टक का पाठ भी किया जाता है.

प्रमुख ग्रंथ-

आदि शंकराचार्य जी नें हिन्दी, संस्कृत का प्रयोग करते हुए करीब 10 से ज्यादा उपनिषदों, कई शास्त्रों, गीता पर संस्करण और कई उपदेशों को, लिखित व मौखिक लोगों तक पहुंचाया.

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आदि शंकराचार्य के अनमोल विचार

1- मंदिर वही पहुंचता है जो धन्यवाद देने जाता हैं, मांगने नहीं।

2- मोह से भरा हुआ इंसान एक सपने कि तरह हैं, यह तब तक ही सच लगता है जब तक आप अज्ञान की नींद में सो रहे होते है।  जब नींद खुलती है तो इसकी कोई सत्ता नही रह जाती है।

3-  जिस तरह एक प्रज्वलित दिपक कॉ चमकने के लीए दूसरे दीपक की ज़रुरत नहीं होती है।  उसी तरह आत्मा जो खुद ज्ञान स्वरूप है उसे और क़िसी ज्ञान कि आवश्यकता नही होती है, अपने खुद के ज्ञान के लिए।

4- आत्मसंयम क्या है ? आंखो को दुनियावी चीज़ों कि ओर आकर्षित न होने देना और बाहरी ताकतों को खुद से दूर रखना।

5- सत्य की कोई भाषा नहीं है।  भाषा सिर्फ मनुष्य का निर्माण है। लेकिन सत्य मनुष्य का निर्माण नहीं, आविष्कार है। सत्य को बनाना या प्रमाणित नहिं करना पड़ता, सिर्फ़ उघाड़ना पड़ता है।

6- सत्य की परिभाषा क्या है ? सत्य की इतनी ही परिभाषा है की जो सदा था, जो सदा है और जो सदा रहेगा।

7- तीर्थ करने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है।  सबसे अच्छा और बड़ा तीर्थ आपका अपना मन है, जिसे विशेष रूप से शुद्ध किया गया हो।

8- जब मन में सच जानने की जिज्ञासा पैदा हो जाए तो दुनियावी चीज़े अर्थहीन लगती हैं।

9- हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि आत्मा एक राज़ा की समान होती है जो शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि से बिल्कुल अलग होती है। आत्मा इन सबका साक्षी स्वरुप है।

10- अज्ञान के कारण आत्मा सीमित लगती है,  लेकिन जब अज्ञान का अंधेरा मिट जाता है, तब आत्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाता है, जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देने लगता है।

11- धर्म की किताबे पढ़ने का उस वक़्त तक कोई मतलब नहीं, जब तक आप सच का पता न लगा पाए।  उसी तरह से अगर आप सच जानते है तो धर्मग्रंथ पढ़ने कि कोइ जरूरत नहीं हैं।  सत्य की राह पर चले।

12- आनंद तभी मिलता  आनंद कि तालाश नही कर रहे होते है।

13- एक सच यह भी है की लोग आपको उसी वक़्त ताक याद करते है जैब ताक सांसें चलती हैं।  सांसों के रुकते ही सबसे क़रीबी रिश्तेदार, दोस्त, यहां तक की पत्नी भी दूर चली जाती है।

आदि शंकराचार्य के श्लोक

1.भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।

प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्‍ करणे ॥

अर्थ – अरे ओ मूर्ख, गोविन्द का भजन कर यानी ईश्वर-भक्ति में मन लगा। जब तुम्हारा मरणकाल पास आ जायेगा तब यह “डुकृञ् करणे” की रट तुम्हें नहीं बचाएगी। “डुकृञ्” संस्कृत व्याकरण की एक क्रियाधातु है जिसका अर्थ “(कार्य/कर्तव्य) करना” है। इस क्रियाधातु का व्यवहार में प्रयोग सामान्यतः देखने को नहीं मिलता। अर्थात् इस पर बहुत दिमाग खपाना कुछ हद तक निरर्थक है। व्याकरण के अध्येता उक्त क्रियाधातु के अर्थ एवं प्रयोजन को याद रखने के लिए “डुकृञ् करणे” रटते होंगे जिसका तात्पर्य है “डुकृञ्” क्रिया “करण” (कार्य करना) के प्रयोजन में लिया जाता है । स्तोत्र के रचनाकार की दृष्टि में जीवन के अंतकाल तक सांसारिक कार्यों में ही निरंतर लिप्त रहना फलदायक नहीं है यह भाव “डुकृञ् करणे” के रटने में प्रतिबिंबित होता है।  “अब तो इस रट को छोड़ो और ईश्वर-प्रार्थना में संलग्न होओ।”

2. भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।

प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ॥

अर्थ – अरे ओ मूर्ख, गोविन्द का भजन कर यानी ईश्वर-भक्ति में मन लगा। जब तुम्हारा मरणकाल पास आ जायेगा तब यह “डुकृञ् करणे” की रट तुम्हें नहीं बचाएगी। “डुकृञ्” संस्कृत व्याकरण की एक क्रियाधातु है जिसका अर्थ “(कर्वव्य) करना” है। इस क्रियाधातु का व्यवहार में प्रयोग सामान्यतः देखने को नहीं मिलता। अर्थात्‍ इस पर बहुत दिमाग खपाना कुछ हद तक निरर्थक है। व्याकरण के अध्येता उक्त क्रियाधातु के अर्थ एवं प्रयोजन को याद रखने के लिए “डुकृञ् करणे” रटते होंगे जिसका तात्पर्य है “डुकृञ्” क्रिया “करण” (कार्य करना) के प्रयोजन में लिया जाता है । स्तोत्र के रचनाकार की दृष्टि में जीवन के अंतकाल तक सांसारिक कार्यों में ही निरंतर लिप्त रहना फलदायक नहीं है यह भाव “डुकृञ् करणे” के रटने में प्रतिबिंबित होता है।  “अब तो इस रट को छोड़ो और ईश्वर-प्रार्थना में संलग्न होओ।”

3. भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।

प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्‍ करणे ॥

अर्थ – अरे ओ मूर्ख, गोविन्द का भजन कर यानी ईश्वर-भक्ति में मन लगा। जब तुम्हारा मरणकाल पास आ जायेगा तब यह “डुकृञ्  करणे” की रट तुम्हें नहीं बचाएगी। “डुकृञ्‍” संस्कृत व्याकरण की एक क्रियाधातु है जिसका अर्थ “(कर्वव्य) करना” है। इस क्रियाधातु का व्यवहार में प्रयोग सामान्यतः देखने को नहीं मिलता। अर्थात्‍ इस पर बहुत दिमाग खपाना कुछ हद तक निरर्थक है। व्याकरण के अध्येता उक्त क्रियाधातु के अर्थ एवं प्रयोजन को याद रखने के लिए “डुकृञ्  करणे” रटते होंगे जिसका तात्पर्य है “डुकृञ्” क्रिया “करण” (कार्य करना) के प्रयोजन में लिया जाता है । स्तोत्र के रचनाकार की दृष्टि में जीवन के अंतकाल तक सांसारिक कार्यों में ही निरंतर लिप्त रहना फलदायक नहीं है यह भाव “डुकृञ्  करणे” के रटने में प्रतिबिंबित होता है।  “अब तो इस रट को छोड़ो और ईश्वर-प्रार्थना में संलग्न होओ।”

आदि शंकराचार्य के जीवन से जुड़े कुछ प्रश्न-उत्तर

आदि शंकराचार्य जी का जन्म स्थान कहाँ है?

अगर आदि शंकराचार्य जी के जन्म की बात की जाये तो यहां काफी मतभेद हैं, वैसे काफी इतिहासकारों का मानना है कि इनका जन्म आज से करीब 1200 सो वर्ष पहले 788 में हुआ था और इन्होंने 32 साल की उम्र में समाधि ले ली थी। वही कुछ लोगों का मानना है कि आदि शंकराचार्य जी का जन्म 2500 वर्ष पहले हुआ था। आदि शंकराचार्य जी का जन्म भारत में स्थित केरल राज्य के एर्नाकुलम के एक छोटे गांव कालडी में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य जी की माता-जी बहुत धार्मिक थी उन्हे सपने में भगवान शंकर ने कहा था कि उनके घर एक नन्हा सा बालक पैदा होगा। तभी इनका नाम शंकर रखा गया और इन्हे भगवान शंकर का अवतार भी माना जाता है।

आदि शंकराचार्य के माता पिता का नाम क्या था?

आदि शंकराचार्य जी के पिता का नाम शिवगुरू था और माता जी का नाम आर्यम्बा था।

आदि गुरु शंकराचार्य की मृत्यु कैसे हुई?

आदि शंकराचार्य जी ही वह इंसान थे  जिनके कारण आज हिंदू धर्म जिंदा है। उन्होंने 7 वर्ष की उम्र में सन्यास ले लिया था और जब वे 32 वर्ष की आयु में थे उन्होंने केदारनाथ में संजीवन समाधि ले ली।

चार मठ कौन कौन से हैं?

आदि शंकराचार्य जी ने देश की चारों दिशाओं में चार मठ श्रृंगेरी मठ, गोवर्धन मठ, शारदा मठ और ज्योतिर्मठ की स्थापना की थी.

—- साल भर पड़ने वाले समस्त त्यौहारो का विवरण विस्तार से—–

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