हमारी संस्कृति में गुरू को सर्वोपरि माना गया है। शिष्यों के श्रेष्ठ कर्मों का श्रेय गुरू को ही जाता है। मनु समृति के अनुसार, सिर्फ वेदों की शिक्षा देने वाला ही गुरू नहीं होता वल्कि हर वह वक्ति जो आपका सही मार्गदर्शन करे, उसे भी गुरू के समान समझना चाहिए। आइये जानते हैं गुरू कृपा पर कबीर के दोहे।
गुरु गोविंद दोऊँ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥
दण्डवत गोविन्द गुरू, वन्दौ अब जन सोय।
पहले भये प्रनाम तिन, नमो जु आगे होय।।
गुरू मूर्ती गती चंद्रमा, सेवक नैन चकोर |
आठ पहर निरखता रहे, गुरू मूर्ती की ओर ||
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥
मूल ध्यान गुरू रूप है, मूल पूजा गुरू पाव |
मूल नाम गुरू वचन हाई, मूल सत्य सतभाव ||
गुरू जो बसे बनारसी, सीष समुंदर तीर।
एक पलक बिसरै नहीं. जो गुण होय सरीर।।
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥
शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥
गुरू बिन ज्ञान न उपजई, गुरू बिन मलई न मोश |
गुरू बिन लाखाई ना सत्य को, गुरू बिन मिटे ना दोष ||
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत-दिखावनहार।।