Motivational Story in Hindi – अभिभावक की उम्मीदे: आजकल की व्यस्त ज़िन्दगी में अभिभावकों को अपने बच्चो से काफी उम्मीदे है. उम्मीद रखना गलत नहीं होता लेकिन कोई भी चाहत हद से ज़्यादा बढ़ जाए तोह नुकसानदेह साबित हो सकती है. माता-पिता अपने बच्चो को पढ़ाई में ९० प्रतिशत से ऊपर अंक प्राप्त करते हुए देखना चाहते है. इससे बच्चो में तनाव जिसे अंग्रेजी में स्ट्रेस कहते है . आजकल भारत में कई विद्यालय और कॉलेजों में यह स्ट्रेस विद्यार्थीयो में नज़र आता है. माता- पिता के सपनो ने इतनी उड़ान भर ली है की वह यह भूल जाते है की उनके बच्चे क्या चाहते है.
माता – पिता हर कक्षा में अव्वल आने के लिए हर संभव कोशिश करते है जिसके लिए माता -पिता अपने बच्चो के दस ट्यूशन लगवा देते है और पैसा पानी की तरह बहाते है. उनके आगे बच्चो का बड़े कॉलेजों में दाखिले के अलावा कुछ नहीं सूझता है. विदेशों से ज़्यादा भारत में अभिभावकों का बच्चो पर पढ़ाई के मामले में दबाव बहुत ज़्यादा रहता है.
इसीलिए बच्चों में डिप्रेशन जैसी चीज़ों की उत्पति होती है. बच्चो में यह दबाव बढ़ जाता है की अगर अंक अच्छे नहीं आये तो माता- पिता क्या बोलेंगे,रिश्तेदार क्या कहेंगे , पड़ोसी और समाज क्या कहेगा इत्यादि . सपनो के उड़ान की कोई सीमा नहीं होती .आजकल माता- पिता की उम्मीदे की उड़ान भी कुछ ऐसी हो गयी है.
माता-पिता जो भी सपने देखते है और बच्चो के भविष्य के लिए जो कुछ भी कर रहे है वह गलत नहीं है. वह अपने बच्चो का भला चाहते है ताकि उनका भविष्य उज्जवल हो और पढ़-लिखकर इंजीनियर ,डॉक्टर और बड़े अफसर बने. लेकिन यह कहीं न कहीं बच्चों में एक दबाव की उत्पति होती है जिससे बच्चों को अत्यधिक टेंशन और डिप्रेशन का शिकार बनाती है. स्कूल में बढ़ते हुए प्रोजेक्ट्स, असाइनमेंट्स बच्चों पर नियमित रूप से तनाव की सृष्टि करता है. कभी – कभी वह चाहकर भी अपने माता- पिता से बात करने में झिझकते है. उन्हें लगता है माता- पिता सोचेंगे की वह पढ़ाई न करने के बहाने ढूंढ़ता है. कभी कबार विद्यार्थी कुछ गंभीर कदम उठा लेते है और माता- पिता को अफ़सोस करने के अलावा कुछ नहीं सूझता .
कुछ बच्चे यह उम्मीदों पर खरे उतरने का प्रेशर बखूभी सँभालते है और ज़िन्दगी में अपने और अपने परिवार का नाम रोशन करते है. हर बच्चे को डॉक्टर और इंजीनियर नहीं बनना होता उन्हें किसी दूसरे क्षेत्र में रूचि हो सकती है जैसे लेखक , संगीतकार, आदि. यह सब जानने का कर्त्तव्य संपूर्ण रूप से माता- पिता का होता है.
मनोचिक्त्शक यह कहते है की माता- पिता को बच्चों के साथ समय बिताना चाहिए. उन्हें समझने की कोशिश करनी चाहिए. यह पूछना चाहिए की आखिर वह चाहते क्या है?.जिस क्षेत्र में बच्चों को रूचि है उसमे दाखिला कराये और बच्चों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे.
अत्यधिक उम्मीदों का दबाव के कारण बच्चे गलत राह पर चलने लगते है जिससे माँ-बाप अनजान रहते है. नतीजा यह की वह परीक्षा में नक़ल करते है और स्कूल से निलंबित कर दिए जाते है. भारत में कोलकाता में बच्चो के आत्महत्या ९०० से अधिक केस दर्ज हुए है. जो सिर्फ पढ़ाई के दबाव के कारण डिप्रेशन यानी तनाव था. कोलकाता के बाद महाराष्ट्र दूसरे नंबर पर है. भारतीय सूत्रों के अनुसार यह दर बढ़ता चला रहा है.
मनोचिकित्सक का कहना है आजकल इस भागती हुई ज़िन्दगी में माता-पिता आफिस चले जाते है और बच्चों को मैड के भरोसे छोड़ देते है. एक दूसरे के साथ वह वक़्त बिताना भूल जाते है. माँ – बाप को बच्चो के हर पहलु को समझना जरुरी है. हर समय कड़ेपन का रुख अपनाना सही नहीं है. टीनएजर के पड़ाव में युवाओं के जोश को नियंत्रण करना भी ज़रूरी है . हर पहलु में दखल अंदाज़ी आगे चलकर भयानक रूप ले सकता है. समाज में लोग मानसिक रोगों को एक-दूसरे से बात -चीत करना उन्हें सही नहीं लगता.क्योंकि समाज इसको गलत रूप दे सकती है. बच्चों पर हर बात पर रोक टोक और बेवजह चिल्लाना हमेशा ज़रूरी नहीं होता. कहने का तात्पर्य है उन्हें एक दोस्त की तरह समझना ज़रूरी होता है. अगर कोई भी संदेहजनक लक्षण बच्चों में नज़र आये तोह तुरंत एक मनोवैज्ञानिक से सलाह ले.मनोवैज्ञानिक बच्चो की विशेष काउंसलिंग करते है जिससे बच्चों को मदद मिल सकती है. सबसे ज़रूरी चीज़ अगर माँ- बाप का सहयोग और आशीर्वाद हो तोह बच्चे इससे जल्दी उभर सकते है.
निष्कर्ष
बच्चों को समय पर उनका होमवर्क ख़तम करना चाहिए ताकि उन्हें तनाव जैसी चीज़ें न हो. अगर अभिभावक सहयोग करे , बच्चो से जी खोलकर वार्तालाप करें तो कठिन से कठिन वक़्त बीत जाता है. अभिभावक का कर्त्तव्य उन्हें सही -गलत में फर्क कराना होता है . बच्चे क्या चाहते है …उनकी रूचि किस तरफ है उस राह में उन्हें प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए. ज़िन्दगी में उतर चढ़ाव आते है इससे बच्चो को मायूस नहीं होना चाहिए न ही अभिभावक को.
लेखिका : रीमा बोस